रविवार, 15 नवंबर 2009

नियोग व्यवस्था

आजकल इन्टरनेट कुछ ब्लोग्स आदि पर वैदिक धर्म को नियोग का नाम लेकर उसका बड़ा मजाक उड़ाया जाता है मैंने एक मुस्लिम ब्लोग्कर्ता के नियोग संबधी लेख पर एक टिप्पणी की थी जोकि उसने कुछ दिन बाद वहां से डिलीट कर दी ये अच्छा रहा कि वो टिप्पणी मैंने अपने गूगल डोक्युमेंट में सेव कर ली थी तो मैंने सोचा क्यों न मैं उसको अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करता हूँ ताकि लोगो की इस बारे में भ्रान्ति दूर हो सके. प्रतीक्षा रहेगी कि आप लोग इस बारे में क्या सोचते हैं?

उस ब्लोग्कर्ता के अनुसार

शीर्षक:क्या `नियोग´ जैसी शमर्नाक व्यवस्था ईश्वर ने दी है?
शनिवार, ३१ अक्तूबर २००९

हिन्दू धर्म में विधवा औरत और विधुर मर्द को अपने जीवन साथी की मौत के बाद पुनर्विवाह करने से वेदों के आधार पर रोक और बिना दोबारा विवाह किये ही दोनों को `नियोग´ द्वारा सन्तान उत्पन्न करने की व्यवस्था है। एक विधवा स्त्री बच्चे पैदा करने के लिए वेदानुसार दस पुरूषों के साथ `नियोग´ कर सकती है और ऐसे ही एक विधुर मर्द भी दस स्त्रियों के साथ `नियोग´ कर सकता है। बल्कि यदि पति बच्चा पैदा करने के लायक़ न हो तो पत्नि अपने पति की इजाज़त से उसके जीते जी भी अन्य पुरूष से `नियोग´ कर सकती है। हिन्दू धर्म के झंडाबरदारों को इसमें कोई पाप नज़र नहीं आता।
क्या वाक़ई ईश्वर ऐसी व्यवस्था देगा जिसे मानने के लिए खुद वेद प्रचारक ही तैयार नहीं हैं?
ऐसा लगता है कि या तो वेदों में क्षेपक हो गया है या फिर `नियोग´ की वैदिक व्यवस्था किसी विशेष काल के लिए थी, सदा के लिए नहीं थी । ईश्वर की ओर से सदा के लिए किसी अन्य व्यवस्था का भेजा जाना अभीष्ट था।
अब सवाल है कि कौन सी व्यवस्था अपनी जाये ? इसका सीधा सा हल है पुनर्विवाह की व्यवस्था
जी हाँ, केवल पुनर्विवाह के द्वारा ही विधवा और विधुर दोनों की समस्या का सम्मानजनक हल संभव है।
ईश्वर ने क़ुरआन में यही व्यवस्था दी है।

मेरा उत्तर -

नियोग व्यवस्था को लोग गलत तरीके से समझते हैं सबसे पहले तो मैं कहना चाहूँगा कि वैदिक या हिन्दू धर्म में अपनी पत्नी के सिवाय दूसरी स्त्री से सम्बन्ध तो दूर मन से सोचना भी पाप है और ऐसा ही स्त्री के लिए है. अब यदि स्त्री का पति, या पुरुष की पत्नी कोई मर जाता है तो सबसे पहले तो उसको ब्रह्मचर्य के पालन की आज्ञा है किन्तु यदि वो व्यक्ति या स्त्री उस श्रेणी में नहीं आते हैं और संतान उत्पत्ति चाहते हैं तो समाज की सहमती से विवाह के समान नियोग व्यवस्था है. और इस व्यवस्था का उद्देश्य सिर्फ संतान उत्पत्ति करना ही होता है वैसे भी हमारे धर्म के अनुसार वैवाहिक जीवन में भी स्त्री-पुरुष का शारीरिक सम्बन्ध केवल संतान पैदा करने के लिए ही होना चाहिए और इतना न कर सकें तो कम से कम होना चाहिए किन्तु उनको प्यार से रहना चाहिए जैसे कोई प्रेमी-प्रेमिका हो. और ये आजकल दीखता भी है प्रेमी-प्रेमिका में प्यार होता है जब तक उनके बीच शारीरिक सम्बन्ध न हो एक आकर्षण में बंधे होते हैं वो, किन्तु विवाह के पश्चात उनका ध्येय केवल शारीरिक सम्बन्ध रह जाता है इस कारण ही प्रेम में कमी आ जाती है और आकर्षण विकर्षण में परिवर्तित होने लगता है . वैदिक धर्म ये नहीं कहता कि विवाह में शारीरिक सम्बन्ध वर्जित है किन्तु उसका उद्देश्य केवल संतान उत्पत्ति के लिए प्रेमपूर्वक ही हो तो उनके मध्य बेहतर सम्बन्ध और शुद्ध प्रेम रहता है. ये बात आपको शायद अजीब लग रही हो क्योंकि आज कल तो केवल सेक्स को ही प्रेम माना जाता है पर साथ-२ आप ये भी देख सकते हैं कि आज-कल के वैवाहिक जीवन में कितने ही राड़-द्वेष-क्लेश उत्पन्न हो चुके हैं, कितने विवाह-विच्छेद होने लगे हैं.

नियोग व्यवस्था विवाह की तरह ही है किन्तु उसका नाम नियोग इसलिए रखा गया है ताकि समाज में अव्यवस्था न हो. उदाहरण के तौर पर स्त्री के पति की मौत के पश्चात पति की आर्थिक संपत्ति पर पत्नी का अधिकार होता है और यदि वह पुनर्विवाह करती है तो उसके पूर्व पति की संपत्ति भी नए पति की हो जायेगी जिस कारण अव्यवस्था फैलेगी इस कारण इसको नियोग नाम दिया गया जोकि विवाह की भांति समाज के सहमती से ही संतान उत्पत्ति के लिए होता है किन्तु इसमें स्त्री के पूर्व पति की संपत्ति पर नियोगित पुरुष का अधिकार नहीं होता है. यदि नियोगित पुरुष भी मर जाये और स्त्री दूसरी संतान पैदा करना चाहे तो उसी प्रकार से समाज की सहमती से दुसरे व्यक्ति को नियोगित किया जाता है. इसमें नियम यह है कि विधवा स्त्री के साथ वो ही नियोगित होगा जिसकी पत्नी मर चुकी है और इसी तरह से किसी व्यक्ति के लिए भी. विवाहित व्यक्ति या स्त्री का नियोग उसी अवस्था में संभव है यदि उनमें से एक संतान उत्पत्ति के लायक नहीं है और वो संतान चाहते हैं तो सर्व सहमति से पति या पत्नी किसी से विवाह की भांति नियोग कर सकते हैं किन्तु उनकी संतान के माता-पिता वैवाहिक पति-पत्नी ही होंगे. छिपकर सम्बन्ध बनाने से बेहतर है आपसी सहमती से हो वरना वो व्यभिचार कि श्रेणी में आता है. वैदिक मतानुसार ये माना जाता है और ये सही लगता भी है यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी से या स्त्री अपने पति से शारीरिक सम्बन्ध बना चुके हैं और उनमें से किसी एक मर जाने पर पुनर्विवाह में सात्विक प्रेम की कमी रहेगी क्योंकि उनका सम्बन्ध अपने पूर्व पति या पत्नी से हो चुका है और शुद्ध प्रेम विवाह की सबसे पहली कसौटी है, इस कारण नियोग एक आपातकालीन व्यवस्था है संतान उत्पत्ति के लिए है जो विवाह की भांति समाज की सहमती से होती है, यह व्यवस्था समाज में व्यभिचार को और सामाजिक व्यवस्था को रोकने के लिए है. ये बहुत से लोगो को पहली बार में गलत लग सकती है किन्तु गहराई से अनुसंधान करके सोचो तो इसमें बुराई नज़र नहीं आती. पर यह व्यवस्था एक आदर्श समाज में ही चल सकती है नाकि आजकल इस व्यभिचारी समाज में जिसमें विवाह के पश्चात भी आदमी इधर-उधर व्यभिचार के लिए भटकता रहता है और विवाह का प्रयोजन केवल शारीरिक सम्बन्ध तक ही सीमित रहता है, तो आज के हिसाब से पुनर्विवाह ही बेहतर विकल्प है क्योंकि जब पहले में ही शुद्ध प्रेम नहीं है तो दूसरे के बारे में क्या सोचें. इसी कारण महर्षि दयानंद ने भी अपने काल में अनेक विधवाओं का पुनर्विवाह करवाया जो कि समाज के द्वारा शोषित हो रही थी.

इसको आप एक तरह का पुनर्विवाह भी कह सकते हैं जिसमें नाम और कुछ नियमों का अंतर है. आप इसी बात से अनुमान लगा सकते हैं कि नियोगित पुरुष भी स्त्री का पति ही कहलाता है. जिस प्रकार विवाह में समाज की सहमती से पुरुष और स्त्री के शारीरिक सम्बन्ध करने कि अनुमति मिल जाती है और उससे किसी को घृणा नहीं होती उसी प्रकार इसमें भी पुरुष और स्त्री के साथ समाज की सहमती होती है तो इसमें क्या घृणा वाली बात है किन्तु यह एक आपातकालीन अवस्था है जैसे कि मैंने यहाँ पूर्व में वर्णित किया है और आज कि द्रष्टि से पुनर्विवाह ही सही है और यह हिन्दू धर्म कि विशेषता भी है कि समय के अनुसार विद्वानों द्वारा कुछ सामाजिक परिवेश को देखते हुए बदलाव किया जा सकता है क्योंकि हम लोग लकीर के फ़कीर नहीं है. किन्तु यह भी सत्य है कि यह व्यवस्था तार्किक है किन्तु आज समयानुकूल नहीं है. बुराई करने वाले तो अपने अनुसार चीजों का अर्थ लगा लेते हैं और बेढंगी व्याखा करते हैं उनका कोई इलाज संभव नहीं है. सब से मजे की बात यह है कि बुराई करने वाले भी अधिकतर चरित्रहीन और व्यभिचारी ही होते हैं. आज मनुष्य की यह स्तिथि है कि अपने चरित्र में लाख बुराइयां हो किन्तु अपने को श्रेष्ठ घोषित करने में और दूसरों पर ऊँगली उठाने में वो कभी पीछे नहीं रहेगा.

एक बात और नियोगित पुरुष या स्त्री को चुनने से पहले विवाह कि भांति उनकी इच्छा भी इसमें आवश्यक है इसको बलात किसी पर थोपा नहीं जा सकता जैसे कि कालान्तर में कुछ समाज के लोगो ने इसका अपनी अय्याशी के लिए फायदा उठाने का प्रयास किया है. नियोग व्यवस्था में बहुत लोग देवर का गलत अर्थ सोचते हैं उनके अनुसार देवर केवल पूर्व पति का छोटा भाई ही होता है क्यूंकि लोक-व्यवहार में देवर पति के छोटे भाई को ही बोला जाता है किन्तु शास्त्र में देवर का अर्थ दूसरे पति के लिए होता है वो कोई भी सर्वसहमति से पति के समान चुना हुआ नियोगित पुरुष होता है. जिस प्रकार कई स्थानों पर शास्त्रों में ईश्वर को अग्नि, आकाश, इन्द्र आदि नामों से प्रसंगवश पुकारा जाता है किन्तु उन शब्दों का लोक-व्यवहार में अलग अर्थ भी होता है. तो शब्दों के अर्थ कि निश्चितता के लिए उसके प्रसंग पर अवश्य ध्यान देना चाहिए नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है.