रविवार, 15 नवंबर 2009

नियोग व्यवस्था

आजकल इन्टरनेट कुछ ब्लोग्स आदि पर वैदिक धर्म को नियोग का नाम लेकर उसका बड़ा मजाक उड़ाया जाता है मैंने एक मुस्लिम ब्लोग्कर्ता के नियोग संबधी लेख पर एक टिप्पणी की थी जोकि उसने कुछ दिन बाद वहां से डिलीट कर दी ये अच्छा रहा कि वो टिप्पणी मैंने अपने गूगल डोक्युमेंट में सेव कर ली थी तो मैंने सोचा क्यों न मैं उसको अपने ब्लॉग पर प्रकाशित करता हूँ ताकि लोगो की इस बारे में भ्रान्ति दूर हो सके. प्रतीक्षा रहेगी कि आप लोग इस बारे में क्या सोचते हैं?

उस ब्लोग्कर्ता के अनुसार

शीर्षक:क्या `नियोग´ जैसी शमर्नाक व्यवस्था ईश्वर ने दी है?
शनिवार, ३१ अक्तूबर २००९

हिन्दू धर्म में विधवा औरत और विधुर मर्द को अपने जीवन साथी की मौत के बाद पुनर्विवाह करने से वेदों के आधार पर रोक और बिना दोबारा विवाह किये ही दोनों को `नियोग´ द्वारा सन्तान उत्पन्न करने की व्यवस्था है। एक विधवा स्त्री बच्चे पैदा करने के लिए वेदानुसार दस पुरूषों के साथ `नियोग´ कर सकती है और ऐसे ही एक विधुर मर्द भी दस स्त्रियों के साथ `नियोग´ कर सकता है। बल्कि यदि पति बच्चा पैदा करने के लायक़ न हो तो पत्नि अपने पति की इजाज़त से उसके जीते जी भी अन्य पुरूष से `नियोग´ कर सकती है। हिन्दू धर्म के झंडाबरदारों को इसमें कोई पाप नज़र नहीं आता।
क्या वाक़ई ईश्वर ऐसी व्यवस्था देगा जिसे मानने के लिए खुद वेद प्रचारक ही तैयार नहीं हैं?
ऐसा लगता है कि या तो वेदों में क्षेपक हो गया है या फिर `नियोग´ की वैदिक व्यवस्था किसी विशेष काल के लिए थी, सदा के लिए नहीं थी । ईश्वर की ओर से सदा के लिए किसी अन्य व्यवस्था का भेजा जाना अभीष्ट था।
अब सवाल है कि कौन सी व्यवस्था अपनी जाये ? इसका सीधा सा हल है पुनर्विवाह की व्यवस्था
जी हाँ, केवल पुनर्विवाह के द्वारा ही विधवा और विधुर दोनों की समस्या का सम्मानजनक हल संभव है।
ईश्वर ने क़ुरआन में यही व्यवस्था दी है।

मेरा उत्तर -

नियोग व्यवस्था को लोग गलत तरीके से समझते हैं सबसे पहले तो मैं कहना चाहूँगा कि वैदिक या हिन्दू धर्म में अपनी पत्नी के सिवाय दूसरी स्त्री से सम्बन्ध तो दूर मन से सोचना भी पाप है और ऐसा ही स्त्री के लिए है. अब यदि स्त्री का पति, या पुरुष की पत्नी कोई मर जाता है तो सबसे पहले तो उसको ब्रह्मचर्य के पालन की आज्ञा है किन्तु यदि वो व्यक्ति या स्त्री उस श्रेणी में नहीं आते हैं और संतान उत्पत्ति चाहते हैं तो समाज की सहमती से विवाह के समान नियोग व्यवस्था है. और इस व्यवस्था का उद्देश्य सिर्फ संतान उत्पत्ति करना ही होता है वैसे भी हमारे धर्म के अनुसार वैवाहिक जीवन में भी स्त्री-पुरुष का शारीरिक सम्बन्ध केवल संतान पैदा करने के लिए ही होना चाहिए और इतना न कर सकें तो कम से कम होना चाहिए किन्तु उनको प्यार से रहना चाहिए जैसे कोई प्रेमी-प्रेमिका हो. और ये आजकल दीखता भी है प्रेमी-प्रेमिका में प्यार होता है जब तक उनके बीच शारीरिक सम्बन्ध न हो एक आकर्षण में बंधे होते हैं वो, किन्तु विवाह के पश्चात उनका ध्येय केवल शारीरिक सम्बन्ध रह जाता है इस कारण ही प्रेम में कमी आ जाती है और आकर्षण विकर्षण में परिवर्तित होने लगता है . वैदिक धर्म ये नहीं कहता कि विवाह में शारीरिक सम्बन्ध वर्जित है किन्तु उसका उद्देश्य केवल संतान उत्पत्ति के लिए प्रेमपूर्वक ही हो तो उनके मध्य बेहतर सम्बन्ध और शुद्ध प्रेम रहता है. ये बात आपको शायद अजीब लग रही हो क्योंकि आज कल तो केवल सेक्स को ही प्रेम माना जाता है पर साथ-२ आप ये भी देख सकते हैं कि आज-कल के वैवाहिक जीवन में कितने ही राड़-द्वेष-क्लेश उत्पन्न हो चुके हैं, कितने विवाह-विच्छेद होने लगे हैं.

नियोग व्यवस्था विवाह की तरह ही है किन्तु उसका नाम नियोग इसलिए रखा गया है ताकि समाज में अव्यवस्था न हो. उदाहरण के तौर पर स्त्री के पति की मौत के पश्चात पति की आर्थिक संपत्ति पर पत्नी का अधिकार होता है और यदि वह पुनर्विवाह करती है तो उसके पूर्व पति की संपत्ति भी नए पति की हो जायेगी जिस कारण अव्यवस्था फैलेगी इस कारण इसको नियोग नाम दिया गया जोकि विवाह की भांति समाज के सहमती से ही संतान उत्पत्ति के लिए होता है किन्तु इसमें स्त्री के पूर्व पति की संपत्ति पर नियोगित पुरुष का अधिकार नहीं होता है. यदि नियोगित पुरुष भी मर जाये और स्त्री दूसरी संतान पैदा करना चाहे तो उसी प्रकार से समाज की सहमती से दुसरे व्यक्ति को नियोगित किया जाता है. इसमें नियम यह है कि विधवा स्त्री के साथ वो ही नियोगित होगा जिसकी पत्नी मर चुकी है और इसी तरह से किसी व्यक्ति के लिए भी. विवाहित व्यक्ति या स्त्री का नियोग उसी अवस्था में संभव है यदि उनमें से एक संतान उत्पत्ति के लायक नहीं है और वो संतान चाहते हैं तो सर्व सहमति से पति या पत्नी किसी से विवाह की भांति नियोग कर सकते हैं किन्तु उनकी संतान के माता-पिता वैवाहिक पति-पत्नी ही होंगे. छिपकर सम्बन्ध बनाने से बेहतर है आपसी सहमती से हो वरना वो व्यभिचार कि श्रेणी में आता है. वैदिक मतानुसार ये माना जाता है और ये सही लगता भी है यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी से या स्त्री अपने पति से शारीरिक सम्बन्ध बना चुके हैं और उनमें से किसी एक मर जाने पर पुनर्विवाह में सात्विक प्रेम की कमी रहेगी क्योंकि उनका सम्बन्ध अपने पूर्व पति या पत्नी से हो चुका है और शुद्ध प्रेम विवाह की सबसे पहली कसौटी है, इस कारण नियोग एक आपातकालीन व्यवस्था है संतान उत्पत्ति के लिए है जो विवाह की भांति समाज की सहमती से होती है, यह व्यवस्था समाज में व्यभिचार को और सामाजिक व्यवस्था को रोकने के लिए है. ये बहुत से लोगो को पहली बार में गलत लग सकती है किन्तु गहराई से अनुसंधान करके सोचो तो इसमें बुराई नज़र नहीं आती. पर यह व्यवस्था एक आदर्श समाज में ही चल सकती है नाकि आजकल इस व्यभिचारी समाज में जिसमें विवाह के पश्चात भी आदमी इधर-उधर व्यभिचार के लिए भटकता रहता है और विवाह का प्रयोजन केवल शारीरिक सम्बन्ध तक ही सीमित रहता है, तो आज के हिसाब से पुनर्विवाह ही बेहतर विकल्प है क्योंकि जब पहले में ही शुद्ध प्रेम नहीं है तो दूसरे के बारे में क्या सोचें. इसी कारण महर्षि दयानंद ने भी अपने काल में अनेक विधवाओं का पुनर्विवाह करवाया जो कि समाज के द्वारा शोषित हो रही थी.

इसको आप एक तरह का पुनर्विवाह भी कह सकते हैं जिसमें नाम और कुछ नियमों का अंतर है. आप इसी बात से अनुमान लगा सकते हैं कि नियोगित पुरुष भी स्त्री का पति ही कहलाता है. जिस प्रकार विवाह में समाज की सहमती से पुरुष और स्त्री के शारीरिक सम्बन्ध करने कि अनुमति मिल जाती है और उससे किसी को घृणा नहीं होती उसी प्रकार इसमें भी पुरुष और स्त्री के साथ समाज की सहमती होती है तो इसमें क्या घृणा वाली बात है किन्तु यह एक आपातकालीन अवस्था है जैसे कि मैंने यहाँ पूर्व में वर्णित किया है और आज कि द्रष्टि से पुनर्विवाह ही सही है और यह हिन्दू धर्म कि विशेषता भी है कि समय के अनुसार विद्वानों द्वारा कुछ सामाजिक परिवेश को देखते हुए बदलाव किया जा सकता है क्योंकि हम लोग लकीर के फ़कीर नहीं है. किन्तु यह भी सत्य है कि यह व्यवस्था तार्किक है किन्तु आज समयानुकूल नहीं है. बुराई करने वाले तो अपने अनुसार चीजों का अर्थ लगा लेते हैं और बेढंगी व्याखा करते हैं उनका कोई इलाज संभव नहीं है. सब से मजे की बात यह है कि बुराई करने वाले भी अधिकतर चरित्रहीन और व्यभिचारी ही होते हैं. आज मनुष्य की यह स्तिथि है कि अपने चरित्र में लाख बुराइयां हो किन्तु अपने को श्रेष्ठ घोषित करने में और दूसरों पर ऊँगली उठाने में वो कभी पीछे नहीं रहेगा.

एक बात और नियोगित पुरुष या स्त्री को चुनने से पहले विवाह कि भांति उनकी इच्छा भी इसमें आवश्यक है इसको बलात किसी पर थोपा नहीं जा सकता जैसे कि कालान्तर में कुछ समाज के लोगो ने इसका अपनी अय्याशी के लिए फायदा उठाने का प्रयास किया है. नियोग व्यवस्था में बहुत लोग देवर का गलत अर्थ सोचते हैं उनके अनुसार देवर केवल पूर्व पति का छोटा भाई ही होता है क्यूंकि लोक-व्यवहार में देवर पति के छोटे भाई को ही बोला जाता है किन्तु शास्त्र में देवर का अर्थ दूसरे पति के लिए होता है वो कोई भी सर्वसहमति से पति के समान चुना हुआ नियोगित पुरुष होता है. जिस प्रकार कई स्थानों पर शास्त्रों में ईश्वर को अग्नि, आकाश, इन्द्र आदि नामों से प्रसंगवश पुकारा जाता है किन्तु उन शब्दों का लोक-व्यवहार में अलग अर्थ भी होता है. तो शब्दों के अर्थ कि निश्चितता के लिए उसके प्रसंग पर अवश्य ध्यान देना चाहिए नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है.

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

साँख्य दर्शन

अनेक शताब्दियों से यह प्रवाद रहा है की महर्षि कपिल अनीश्वरवादी थे और उनके द्वारा लिखित सांख्य दर्शन इश्वर को नहीं मानता। परन्तु साँख्य दर्शन का गंभीर तर्कपूर्ण अध्यन इस परिणाम पर नहीं पहुँचता तो यह प्रश्न यह उठता है इस प्रवाद का रहस्य क्या होगा। साँख्य शास्त्र के साथ कपिल का नाम आदि काल से जुडा हुआ है। इस बात में समस्त भारतीय दर्शन निर्विवाद रूप से एकमत है की साँख्य के प्रवक्ता आदि विद्वान परम ऋषि कपिल है। कपिल के अनंतर साँख्य दर्शन में अनेक ऐसे आचार्य हें हैं जिन्होंने इस विषय में कपिल के विचारों से अपना मतभेद प्रस्तुत किया है। उनमें से एक मुख्य आचार्य वार्षगण्य है। उसका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है पर साँख्य के व्याख्या ग्रंथो में उसके कतिपय उद्धृत सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं जिनके अनुसार वार्षगण्य के विचारों का ज्ञान प्राप्त होता है उसका एक सन्दर्भ युक्तिदिपिका में उद्धृत है जिसके अनुसार आदिसर्ग में प्रधान की प्रवृत्ति चेतना रहित हुआ करती है इससे स्पष्ट है प्रकृति की प्रवृत्ति में चेतन प्रेरणा की अपेक्षा स्वीकार नहीं करता, यह मान्यता जगत के प्रति ईश्वर के नियंत्रण को हटा देती है। भारतीय साहित्य पर साँख्य के अनुपम प्रभाव का लाभ उठाने की भावना से अनीश्वरवादी बोद्ध विद्वानों ने अपने उदय काल में वार्षगण्य के इस सिद्दांत का साँख्य के नाम से प्रचार किया जो कालांतर में साँख्य के प्रवक्ता कपिल के होने से कपिल पर आरोपित हो गया। उसके पश्चात उक्त विचार के प्रभाव में मध्य-कालिक विद्वानों द्वारा साँख्य के ईश्वरासिद्धेः सूत्र के वास्तविक आर्थ समझने में भ्रान्ति हो जाने के कारण इस विचार को काफी हवा दी गयी और इस आधार पर कपिल को अनीश्वरवादी मान लिया गया।

वस्तुतः कपिल इस साँख्य सूत्र में जड़ प्रकृति को जगत का मूल उपादान स्वीकार करने के कारण ईश्वर को जगत का केवल अधिष्ठाता व नियंता मानते हैं। इसी कारण प्रकृति के अतिरिक्त ईश्वर तथा अन्य किसी तत्व को जगत के उपादान होने का निषेध किया गया है। ईश्वरासिद्धेः सूत्र में भी जगत के उपादानभूत ईश्वर को असिद्ध बताया है। सर्वजगतनियंता ईश्वर का यहाँ निषेध नहीं है। पूर्वापर प्रसंग के अनुसार यह अर्थ किस प्रकार स्पष्ट होता है यह उस सूत्र के प्रकरण से ही पता चल जाता है। साँख्य के अन्य प्रसंगों में भी ईश्वर के जगतनियंता व अधिष्ठाता होने तथा प्रकृति के जगादुत्पादन होने का विस्तृत वर्णन है।

जिस प्रकार किसी घड़े के निर्मित होने में 3 कारण होते हैं पहला उपदान कारण जोकि यहाँ मिटटी है दूसरा निमित्त कारण जोकि यहाँ कुम्भकार है अथवा ज्ञान या चेतन है और तीसरा कारण है घड़े का प्रयोजन अथवा निर्माण का उद्देश्य जोकि यहाँ अन्य घड़े के उपयोगकर्ता हैं। इन ३ मुख्य कारणों के अलावा सहायकभूत कारण जोकि यहाँ चाक, पानी आदि हैं और उनके भी 3 ही मुख्य कारण होते हैं उपादान, निमित्त और प्रयोजन। उसी प्रकार जगत का एक कारण प्रकृति-उपादान दूसरा सर्वज्ञ ईश्वर-निमित्त और प्रयोजन - अनंत आत्माएं हैं और आत्मा को अविवेक होने के कारण ईश्वर आत्माओं के लिए प्रकृति से जगत निर्मित कर देता है किन्तु स्वयं इन सबसे मुक्त होता है।

सत्व , रजस् और तमस् ये ३ प्रकार के मूल तत्व हैं इनकी साम्यवस्था का नाम प्रकृति है अर्थात जब ये तत्व कार्यरूप में परिणित नहीं होते, प्रत्युत मूल कारण रूप में अवस्थित रहते हैं तब इनका नाम प्रकृति है। समस्त कार्य की कारणरूप अवस्था का नाम प्रकृति है। इस प्रकार कार्यमात्र का मूल उपादान होने से गौण रूप में भले इसे एक कहा जाये ,पर प्रकृति नाम का एक व्यक्ति रूप में कोई तत्व नहीं है। कार्यमात्र के उपादान कारण की मूल भूत स्तिथि 'प्रकृति'है। समस्त वैषम्य अथवा द्वन्द्व विकृति अवस्था में संभव हो सकते है, इसलिए प्रकृति स्वरूप को साम्य अवस्था कहकर स्पष्ट किया जाता है। इस प्रकार मूल तत्व ३ वर्ग में विभक्त है और वह संख्या में अनंत है । जब चेतन की प्रेरणा से उसमें क्षोभ होता है तब वे मूल तत्व कार्योन्मुख हो जाते हैं । अर्थात कार्यरूप में परिणित होने के लिए तत्पर हो जाते हैं। तब उनकी अवस्था साम्य न रह कर वैषम्य की और अग्रसर होती है तब उनका जो प्रथम परिणाम है उसका नाम महत् होता है। इसीको बुद्धि या प्रधान कहते हैं।

यहाँ से सर्ग का आरम्भ होता है महत् से अंहकार आदि और तत्व बनते चले जाते हैं (यहाँ विवरण देने से लेख काफी लम्बा हो जायेगा)। इनमें मूल प्रकृति केवल उपादान, तथा महत् आदि तेईस पदार्थ उसके विकार हैं। ये चौबीस अचेतन जगत है। इसके अतिरिक्त पुरुष अर्थात चेतन तत्व है। इस प्रकार चौबीस अचेतन और पच्चीसवां पुरुष चेतन है। चेतन तत्व भी २ वर्गों में विभक्त है, एक परमात्मा दूसरा जीवात्मा। परमात्मा एक है जीवात्मा अनेक, अर्थात संख्या की द्रष्टि से अनंत हैं। ये हैं वे समस्त तत्व जिनके वास्तविक स्वरुप को पहचान कर अचेतन तथा चेतन के भेद का साक्षात्कार करना है।

बहुत लोग साँख्ययोग को एक साथ जोड़ कर देखते हैं और उसको एक ही पुस्तक या दर्शन समझते हैं। साँख्य के साथ योग का नाम इसलिए लिया जाता है जैसे हम भौतिक-रसायन, जीव-वनस्पति विज्ञानं आदि विषयों को जोड़ी में रखते हैं अन्यथा साँख्य दर्शन एवं योग दर्शन दोनों अलग पुस्तकें हैं और एक दुसरे की पूरक हैं। इसी प्रकार हम न्याय-वैशेषिक (न्याय दर्शन , वैशेषिक दर्शन ) और वेदांत-मीमांसा (वेदांत दर्शन अथवा ब्रह्मसूत्र , मीमांसा दर्शन ) का नाम लेते हैं पर वो सभी हैं अलग -अलग पुस्तकें। साँख्य योग में जगत के उन मूल तत्वों की संख्यात्मक विवेचना की है जो नेत्रों से दिखाई नहीं देते किन्तु जगत के मूल कारण में वो ही तत्व मुख्य होते हैं। और मोक्ष क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है इन सब बातो का भी उसमें उत्तर है । साँख्य को पढने मात्र से ही यह तत्व भेद्ज्ञान नहीं होता जब तक योग दर्शन के अनुरूप सबीज और निर्बीज समाधि तक नहीं पंहुचा जाये। इन तत्वों, आत्मा और इश्वर का साक्षात्कार केवल पढने मात्र या साधारण ज्ञान प्राप्त करने से नहीं होता है इसके लिए उच्च कोटि का पुरषार्थ चाहिए।

इससे स्पष्ट है की वास्तविक सांख्य सिद्दांत अकाल में ही किस प्रकार भ्रान्ति-घटाओं में आच्छादित होते रहे हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री के भाष्य में उनको विच्छिन्न कर वास्तविकताओं को स्पष्ट किया गया है। विवेकशील पाठक मनन करने पर स्वयं अनुभव कर सत्य का निर्धारण कर सकते हैं ।

रविवार, 3 मई 2009

गाँधी परिवार अथवा खान परिवार

गाँधी परिवार का परिचय जब भी किसी कांग्रेसी अथवा मीडिया द्वारा देशवासियों को दिया गया है अथवा दिया जाता है,तब वह फिरोज गाँधी तक जाकर ही यकायक रुक सा जाता है फिर बड़ी सफाई के साथ अचानक उस परिचय का हैंडिल एक विपरीत रास्ते की और घुमाकर नेहरु वंश की और मोड़ दिया जाता है। फिरोज गाँधी भी अंततः किसी के पुत्र तो होंगे ही। उनके पिता कौन थे ? यह बतलाना आवश्यक नहीं समझा जाता। फिरोज गाँधी का परिचय पितृ पक्ष से काट कर क्यों ननिहाल के परिवार से बार-बार जोड़ा जाता रहा है, यह एक ऐसा रहस्य है जिसे नेहरु परिवार के आभा-मंडल से ढक कर एक गहरे गढे में मानो सदैव के लिए ही दफ़न कर दिया गया है।

यह कैसा आश्चर्य है की पंथ निरपेक्षता(मुस्लिम प्रेम) की अलअम्बरदार कांग्रेस के द्वारा भी आखिर यह गर्वपूर्वक क्यों नहीं बतलाया जाता की फिरोज गाँधी एक पारसी युवक नहीं अपितु एक मुस्लिम पिता के पुत्र थे। और फिरोज गाँधी का मूल नाम फिरोज गाँधी नहीं फिरोज खान था जिसको एक सोची समझी कूटनीति के अर्न्तगत फिरोज गाँधी करा दिया गया था।

फिरोज गाँधी मुसलमान थे और जीवन पर्यन्त मुसलमान ही बने रहे। उनके पिता का नाम नवाब खान था जो इलाहबाद में मोती महल (इशरत महल) के निकट ही एक किराने की दूकान चलाते थे । इसी सिलसिले में (रसोई की सामग्री पहुंचाने के सिलसिले में) उनका मोती महल में आना जाना लगातार रहता था। फिरोज खान भी अपने पिता के साथ ही प्रायः मोती महल में जाते रहते थे। वहीँ पर अपनी समवयस्क इन्द्रा प्रियदर्शनी से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे जब यह परिचय गूढ़ प्रेम में परिणत हुआ तब फिरोज खान ने लन्दन की एक मस्जिद में इन्द्रा को मैमूदा बेगम बनाकर उनके साथ निकाह पढ़ लिया।

गाँधी और नेहरु के अत्यधिक विरोध किये जाने के फलस्वरूप भी जब यह निकाह संपन्न हो ही गया तब समस्या 'खान' उपनाम को लेकर आ खड़ी हुई। अंततः इस समस्या का हल नेहरु के जनरल सोलिसिटर श्री सप्रू के द्वारा निकाला गया। मिस्टर सप्रू ने एक याचिका और एक शपथ पत्र न्यायालय में प्रस्तुत करा कर 'खान' उपनाम को 'गाँधी' उपनाम में परिवर्तित करा दिया।इस सत्य को केवल पंडित नेहरु ने ही नहीं अपितु सत्य के उस महान उपासक तथाकथित माहत्मा कहे जाने वाले मोहन दास करम चाँद गाँधी ने भी इसे राष्ट्र से छिपा कर सत्य के साथ ही एक बड़ा विश्वासघात कर डाला।

गाँधी उपनाम ही क्यों - वास्तव में फिरोज खान के पिता नवाब खान की पत्नी जन्म से एक पारसी महिला थी जिन्हें इस्लाम में लाकर उनके पिता ने भी उनसे निकाह पढ़ लिया था। बस फिरोज खान की माँ के इसी जन्मजात पारसी शब्द का पल्ला पकड़ लिया गया। पारसी मत में एक उपनाम गैंदी भी है जो रोमन लिपि में पढ़े जाने पर गाँधी जैसा ही लगता है। और फिर इसी गैंदी उपनाम के आधार पर फिरोज के साथ गाँधी उपनाम को जोड़ कर कांग्रेसियों ने उस मुस्लिम युवक फिरोज खान का परिचय एक पारसी युवक के रूप में बढे ही ढोल-नगाढे के साथ प्रचारित कर दिया। और जो आज भी लगातार बड़ी बेशर्मी के साथ यूँ ही प्रचारित किया जा रहा है।

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

क्या वर्तमान हिन्दू जाति व्यवस्था का कोई प्रमाणित शास्त्रीय आधार है?

आज कल ये बहुत अधिक प्रचारित है कि आज हिन्दू जाति व्यवस्था का उदगम हमारे शास्त्रों द्वारा वर्णित वर्ण व्यवस्था है और भीम राव अम्बेडकर ने यहाँ तक कहा था की यदि इस हिन्दू जाति व्यवस्था से मुक्ति पानी है तो वेद शास्त्रों को डायनामाईट से उड़ा दो और वो स्वयं भी इस जाति व्यवस्था के विरोद्ध में बोद्ध मत में आ गया था और ये भी उसने कहा कि हिन्दू इस विश्व में सबसे संकीर्ण बुद्धि का प्राणी है जो अपने इन शास्त्रों के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोल सकता है और इन्ही की बेडियों में जकडा रहता है। इन बातो के अलावा विशेष कर मनु-स्मृति आदि ग्रंथो का उसने प्रबल विरोद्ध किया। मैंने एक पुस्तक में अम्बेडकर के द्वारा दिए एक भाषण को पढ़ा और उस भाषण में उसने कई मंत्रों विशेषकर मनुस्मृति से उद्धृत मंत्रों का उदाहरण भी दे रखा था। अब मैं कुछ बात रखना चाहता हूँ की उस भाषण को पढ़ने के पश्चात ऐसा आभास होता है की अम्बेडकर ने कोई शास्त्र नहीं पढ़े थे यदि पढ़े थे तो किन्ही स्वयम घोषित विद्वानों के द्वारा अप्रमाणित मंत्रों के पढ़े थे या फिर अंग्रेजी लेखकों द्वारा इंग्लिश अनुवाद पढ़े होंगे। क्युकी अम्बेडकर का सारा लेखन इंग्लिश में ही है तो ये ही लगता है कि उसने इंग्लिश लेखको द्वारा कि हुई अनुवादित पुस्तकें ही पढ़ी होंगी इसका मतलब ये नहीं कि इंग्लिश लेखको द्वारा अनुवादित सारी पुस्तकें अच्छी नहीं हैं पर अधिकतर त्रुटिपूर्ण ही मिलती हैं।
आधुनिक जाति व्यवस्था अत्यधिक् त्रुटिपूर्ण है वरन ये जाति व्यवस्था नहीं एक साम्राज्यवाद है इस बात से मैं भी सहमत हूँ।वेदों में वर्णित वर्ण व्यवस्था या वर्ग व्यवस्था इस सम्पूर्ण विश्व में मनुष्यों को ४ प्रकार की श्रेणी में वर्गीकृत करती है मतलब की इस समस्त विश्व में ४ प्रकार के मानव होते हैं।प्रथम ऐसे मानव जो ज्ञान से वंचित होते हैं और श्रमिक का कार्य करते हैं जैसे की आज कल का मजदूर वर्ग, द्वितीय ऐसे मानव जो व्यापार और उसके उत्थान आदि के लिए कार्य करते हैं जैसे आज कल के सभी व्यापारी, इन्जीनीअर्स, डाक्टर और सभी बोद्धिक कार्यो वाले नौकरीपेशा, तृतीय ऐसे मनुष्य जो लोगो की रक्षा, नेतृत्व और न्याय आदि करते हैं जैसे सेना, नेता, प्रशासक गण आदि और चतुर्थ वो जो ज्ञानी होते हैं जिनके लिए धन की महत्ता भी कुछ नहीं होती, आत्म-साक्षात्कार, ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करते हैं और लोगो को मानव कल्याण, विज्ञान, गणित और अध्यात्म आदि की वेदानुरूप शिक्षा देकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं और सभी वर्गों के सम्मानीय होते हैं जोकि आज लगभग समाप्त हो चुके हैं। इनको क्रम से शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राहमण की संज्ञा दी गयी है। मनुष्य के कर्म बताते हैं की वो किस वर्ग या श्रेणी में आता हैं मतलब की शूद्र का पुत्र ब्रह्मण या शेष सभी किसी भी वर्ग का हो सकता है ऐसे ही ब्रह्मण का पुत्र भी शूद्र आदि किसी भी वर्ण का हो सकता है और शेष भी इसी तरह से जानने चाहियें। मेरी समझ में ये नहीं आता है इसमें आज की जाति व्यवस्था कहाँ है मनुष्य इन्ही ४ प्रकारों में से एक होता है चाहे वो किसी भी देश का हो और इसमें कोई कानूनी या सामाजिक वर्गीकरण करने कि आवश्यकता नहीं होती ये तो प्राकृतिक ही होता है। आज कल मंदिरों में झाडू-पोछा आदि करने वाले शूद्र लोग ब्रह्मण बन बैठें हैं, शूद्र एवं वैश्य लोग क्षत्रिय का कार्य कर रहे हैं और यदि वो इस योग्य होते तब तो वो क्षत्रिय ही कहलाते मैं उनको शूद्र और वैश्य इसलिए कह रहा हूँ क्युकी वो मुर्ख राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त और धन कमाने में ही लगे रहते हैं देश जाये भाड़ में, क्षत्रिय या तो बहुत कम हैं या शांत बैठ कर ये तमाशा देख रहे हैं और ब्रह्मण तो लगभग समाप्त ही हो चुके हैं। आज कल के जन्म आधारित स्वः घोषित ब्रह्मण , क्षत्रिय आदि वास्तव में उस वर्ग के नहीं है और यदि वो हैं तो अपने कर्म से सिद्ध करें न कि गोत्र से। आज भी सरकारें लोगो को पृथक-पृथक वर्गों में रखती हैं किन्तु उनका पृथक्कीकरण मुख्यतः धन और बल पर आधारित होता है उदाहरण के तौर पर आजकल के बुद्दिजीवियों में फिल्म कलाकार, व्यापारी, ढोंगी सेकुलर समाजकर्ता, नेता, मुल्ला मौलवी, मीडिया कर्ता आदि लोगो को ही लिया जाता है जो कि न्याय संगत नहीं है, दूसरे देश द्रोहियों, गुंडों बदमाशो को बाहुबली कि संज्ञा दी जाती है और भी निम्न वर्ग,मध्यम वर्ग, उच् वर्ग आदि संज्ञा से इसी प्रकार से आज के बुद्दिजीवी प्रबुद्ध लोग समाज का वर्गीकरण करते हैं।

मनु स्मृति या किसी भी आर्ष ग्रन्थ में आज की जाति व्यवस्था नहीं लिखी और न ही छुआ-छूत को मान्यता दी यदि कोई ऐसा कहता है तो वो १०० प्रतिशत उसमें बाद में जोड़ा गया है मनु या अन्य किसी भी महापुरुष ने ऐसा नहीं लिखा। महाभारत के पश्चात वास्तविक कर्म आधारित ब्रह्मण विद्वानों की कमी के कारण और देश की राजनीतिक व्यवस्था के बिगड़ जाने पर जिसके मन में जो आया वो ऋषियों के नाम पर लिखा जैसे कहते हैं महर्षि व्यास ने सभी पुराणों की रचना की, वाम मर्गियों ने कहा शास्त्रों में यज्ञों में बलि, मदिरापान, उल्टे-सीधे योन-संबंद्ध आदि घिनोने कार्य लिखे हैं, इन्द्र किसी ऋषि पत्नी के साथ ऋषि की अनुपस्थिति में व्यभिचार किया करता था और ऋषि श्राप के कारण वो पत्थर बन गई और भी पता नहीं क्या-क्या बकवासबाजी लिखी, प्रमाणित उपनिषद हैं तो १० या १३ किन्तु अब १०८ और उससे अधिक बताते हैं जिनमें वास्तविक उपनिषदों को छोड़ कर अन्य में साम्प्रदायिकता भरी हुई है। आज अधिकतर वैदिक ग्रंथों में प्रक्षिप्त श्लोक मिल जायेंगे किन्तु जो प्रमाणिक हैं उनमें कोई भी बात न्याय विरुद्ध नहीं मिलेगी। उन प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर लोग वैदिक शास्त्रों की बुराई करने लगते हैं और हिन्दू समाज को विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित करने का कार्य करते हैं। वेदों में वर्ण व्यवस्था विज्ञान सम्मत है और उसको कोई माने या न माने किन्तु प्रत्येक मनुष्य उन ४ वर्गों में से ही एक होता है। जाति शब्द वेदों या प्रमाणित शास्त्रों में इस तरह से आया है मनुष्य जाति, अश्व जाति, मार्जार जाति, वानर जाति आदि और इन विभिन्न जातियों में विवाह निषेध है तो इसमें गलत क्या है। आज इसका स्वरुप स्वार्थी, प्रमादी और मुर्ख लोगो द्वारा कुछ का कुछ कर दिया है। छुआ-छूत का जहर पूरे समाज में फैला दिया है जिसके कारण देश को सैकड़ो वर्षो से बहुत अधिक हानि हो रही है। आज इसी कारण ऐसे लोग राज कर रहे हैं जिसकी किसी राष्ट्रभक्त को पूर्व में कल्पना भी नहीं होगी और देश विखंडन की और अग्रसर है।
अम्बेडकर ने अपने भाषण में मनुस्मृति के जिन श्लोको का वर्णन किया है वो अधिकतर प्रक्षिप्त श्लोक थे या कुछ का गलत सन्दर्भ में अर्थ पेश किया गया था। वास्तव में अम्बेडकर की भी इतनी गलती नहीं है जितनी जन्म आधारित और स्वः घोषित ब्रह्मणों की जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ सत्यानाश कर दिया और उन्ही के सताए हुए लोगो में से एक अम्बेडकर भी था वैसे वो एक राष्ट्र भक्त ही था जैसा की उसकी और बातों से लगता है । इस बात का फायदा हमेशा राष्ट्रविरोधी शक्तियों ने लिया है और आगे भी लेते रहेंगे जब तक हिन्दू अपनी कपोल-कल्पित जातियों में खंडित रहेगा। उदाहरण के तौर पर आरक्षण एक ऐसा ही राष्ट्रविरोधी लोगो द्वारा फेंका ऐसा दानव है जो हिन्दुओं को निगलता ही जा रहा है। इतनी बर्बादी होने के बाद भी हिन्दू नहीं सुधरे तो निश्चित इस सनातन धर्म की पावन गंगा का सूख जाना निश्चित है। सन १९३० में प्रसिद्द समकालीन अमेरिकी इतिहासकार विल ड्यूरेंट ने एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उसने उसने भारत की वर्तमान अवस्था पर कटाक्ष करते हुए टिप्पणी की थी की " वर्तमान में भारत की जाति व्यवस्था ४ भागो में विभाजित है ब्रह्मण अर्थात अंग्रेज नौकरशाही, क्षत्रिय अर्थात अंग्रेज सेना, वैश्य अर्थात अंग्रेज व्यपारी और अछूत शूद्र अर्थात हिन्दू जनता" इस पुस्तक में और भी अंग्रेजो की मक्कारियों का चिटठा खोला था और इसको अंग्रेजो ने प्रतिबंधित कर दिया था. मेरा यहाँ इस बात का उदाहरण देने का तात्पर्य केवल इतना है की आज हिन्दू या तो जातियों या गुटों में विभक्त है या फिर विल ड्यूरेंट द्वारा किये हुए वर्गीकरण पर आधारित है अंतर बस इतना है की "ब्रह्मण अर्थात अंग्रेजी नौकरशाही, क्षत्रिय अर्थात अंग्रेजी सेना, वैश्य अर्थात अंग्रेजी व्यपारी और अछूत शूद्र अर्थात राष्ट्रभक्त हिन्दू जनता".

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

क्या वैदिक धर्म में विभिन्न मत हैं?

कुछ लोग विद्वान होते हुए भी अविद्वता की बात करते हैं तो बड़ा अजीब लगता है जैसे उदाहरण के तौर पर मैंने पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य(शांतिकुंज हरिद्वार वाले)की व्याखित की हुई सांख्य योग, योग शास्त्र, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदांत दर्शन पढ़ी। पुस्तकों की भूमिका में और कहीं-कहीं मध्य में भी श्रीराम शर्मा आचार्य ने ये भरपूर प्रयास किया है की ये पुस्तकें विपरीतार्थक दर्शन हैं जबकि पढने के पश्चात् एक मेरा जैसा आम मनुष्य भी शुद्ध रूप से कह सकता है ये दर्शन तो वेदों के ही पृथक-पृथक विषयों का अध्यन कराते हैं या कह सकते हैं वेद के ज्ञान को ही व्याखित करते हैं और कहीं से कहीं तक भी एक दूसरे का विरोध नही करते और शब्द प्रमाण अर्थात वेद ऋचाओं को सर्वोपरि मानते हैं फ़िर जबरदस्ती ये ऐसा आरोप लगाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं। श्रीराम आचार्य ने अनुवाद और व्याखा उत्तम गुणवत्ता की है किंतु हल्का सा आभास होता है कहीं-कहीं व्याखा अनुवाद से भिन्न नज़र आती है। वैसे निश्चित तौर पर वो अपने इन अनुवादित एवं व्याखित कि हुई पुस्तकों से निर्विवाद विद्वान नज़र आते हैं किन्तु वो इश्वर, आत्मा और प्रकृति के नवीन सिद्धांत एकात्मवाद पर बल देते नज़र आते हैं और साथ में पुराणियो की मूर्तिपूजा और अवतारवाद को समर्थन भी प्रदान करते हैं। मतलब की वो किसी का विरोधी नहीं होना पसंद करते हैं चाहे थोडा सा असत्य क्यों न अपनाना पड़े। उनकी यह मान्यता उनके द्वारा इन व्याखित की हुई पुस्तकों में भी झलकती है। वैसे ये असत्य के विरोधी न होने की मानसिकता आत्मविरोधी के साथ-साथ आत्मघाती भी होती है इसलिए मनुष्य को सर्वदा सत्य का साथ देना चाहिए चाहे कोई बुरा माने या भला माने और इस से साम्प्रदायिक लोगो को बल भी मिलता है और उन जैसे विद्वान पुरुषों को शोभा भी नहीं देता है। मेरे अध्यन के हिसाब से और प्रत्यक्ष प्रमाणित भी है कि संक्षिप्त रूप में महर्षि कपिल द्वारा रचित सांख्य योग प्रकृति के तत्वों की संख्यात्मक विवेचना करता है मतलब की ये जगत किन तत्वों से मिलकर क्यों और कैसे बना है और प्रकृति अपना कार्य किस प्रकार इश्वर से प्रेरित होके करती है,महर्षि पतंजलि का योग शास्त्र इश्वर प्राप्ति या आत्म ज्ञान की क्रियात्मक विवेचना करता है मतलब की सभी ग्रंथो की वास्तविक सार्थकता तभी है जब योग शास्त्र के अनुसार मनुष्य व्यवहार करता हुआ ध्यान, समाधि द्वारा अपने जीवन में क्रियान्वित करे और तभी उसको जीवात्मा, प्रकृति और इश्वर का भेदज्ञान होकर इश्वर सानिध्य प्राप्त आनंद होगा, महर्षि अक्षपाद गौतम का न्याय सत्य-असत्य का कैसे निर्णय हो और प्रमाणों को भी प्रमाणित करते हुए न्याय की विवेचना करता है मतलब की सभी शास्त्रों की प्रमाणिकता किस आधार पर हो उसको बताता है, महर्षि कणाद का वैशेषिक प्रकृति की वास्तविक स्वरूपता की विवेचना करता है मतलब की प्रकृति अपने मूल स्वरुप में कैसी होती है किस तरह से परमाणु सयुंक्त हो कर नवतत्वों का सृजन करते हैं, महर्षि जैमिनी का मीमांसा मनुष्य के कर्म-कांड यज्ञ आदि कर्मो की विवेचना करता है और महर्षि बादरायण कृत वेदांत आत्म ज्ञान और इश्वर उपासना को समझाता है। वेदांत के साथ-साथ बाकि सभी ग्रन्थ इश्वर,आत्मा और प्रकृति ३ नित्य तत्वों को स्वीकारते हैं और इन सभी की रचना इन ३ तत्वों के भेदों, स्वरूपों का वर्णन करने के लिए ही ऋषियों द्वारा मनुष्य कल्याण के लिए ही की है।

बहुत से लोग इस बात को कहते मिल जायेंगे की वैदिक हिन्दू धर्म शास्त्रों की बातें आपस में विरोधी हैं। कुछ लोग यहाँ तक कहते मिल जायेंगे की वेदों की बहुत सी ऋचाएं एक-दुसरे की विरोधी हैं। मैंने वेद तो नहीं पढ़े हैं किन्तु किसी भी आप्त पुरुषों द्वारा ऐसा कहते नहीं सुना। ऐसा कहने वालो में अधिकतर तो वो हैं जिन्होंने इन ग्रंथो का एक अक्षर भी नहीं पढ़ा और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने आधे-अधूरे ज्ञान वालो की या अंग्रेजी लेखको की पुस्तकों को पढ़ कर निर्णय लिया है। कुछ विद्वान वैदिक हिन्दू दर्शन को षड्-दर्शन की संज्ञा देते हैं और वो इसको सांख्य योग, योग शास्त्र, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदांत दर्शन पुस्तकों के आधार पर बोलते हैं की ये पुस्तकें पृथक -पृथक दर्शन हैं और इनको अलग अलग मतों में विभाजित कर देते हैं जैसे सांख्यवादी, न्यायिक, वैशेषिक, मिमांसिक, वेदांत मान्यता वाले आदि नामो से संबोधित करते हैं। यदि इसको सत्य की कसौटी पर रखा जाये तो ये निरी मुर्खता के अलावा कुछ भी नहीं है। जैसे प्राणी विज्ञान के २ भाग हैं जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान तो क्या हम ये कहेंगे जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान एक दूसरे के विरोधी विषय हैं और या फिर क्या हम ये कहते हैं भौतिक शास्त्र रसायन शास्त्र का विरोधी है उसी प्रकार से ये ६ पुस्तकें वेदों पर आधारित ६ विषय को वर्णित करती हैं और कोई भी इनको एक दूसरे का विरोधी नहीं कह सकता है और यदि कहता है तो ये अविद्वता कि बात लगती है। मेरी समझ में ये नहीं आता हिन्दू हर स्तर पर विभाजित है यहाँ तक की अपने धर्म-शास्त्रों के बारे में भी। मुझे ये स्वार्थी विद्वानों, चालक और धूर्त लोगो के कारण ऐसा होता दिखाई देता है। हर कोई अपनी विद्वता को सिद्ध करने के लिए कुछ भी करने को तैयार है और यहाँ तक की उन आप्त-पुरुषों, ब्रह्म-वेत्ताओं अथवा मुक्त-पुरुषों महर्षियों की बातों को अपने छल और कुतर्को से बलपूर्वक काटने का प्रयास करते हैं या अपनी बातो को उनका बताने का मिथ्या प्रचार करते हैं।इनको पढने के लिए अध्यात्म में सत्य के अन्वेषण में गहरी रूचि होनी चाहिए ये ६ ग्रन्थ पढ़ कर आप की जीवनद्रष्टि ही बदल जायेगी और यदि आप सत्य के समर्थक हैं आप की धर्म के बारे में धारणा ही बदल जायेगी और ये भी अंतर कर पाओगे की वैदिक हिन्दू धर्म विज्ञान सम्मत सनातन धर्म है न की कोई मजहब या रिलिजन। इनको पढ़ कर वास्तव में ये एहसास होता है की कितने ही सारे आज के वैज्ञानिक सिद्दांत इन पुस्तकों में और भी व्यापक रूप से हैं मतलब की देखा जाये तो आज के वैज्ञानिको ने ऐसे कुछ नए सिद्दांत नहीं खोजें है वो तो पहले से ही वैदिक शास्त्रों में उस से भी अधिक व्यापक रूप में लिखित है। शायद मेरी बात साम्प्रदायिक लोगो की संकीर्ण बुद्दी से समझ नहीं आएगी जो वैदिक धर्म को मजहब,टोटकेधारियों,रिलिजन आदि की द्रष्टि से देखते हैं। मैं केवल इतना कह सकता हूँ कि मनुष्य स्वयम अध्यन करके सत्य-असत्य का निष्पक्ष रूप से निर्णय कर सकता है।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

आवश्यकता है अभी एक ओर स्वतंत्रता संग्राम की

सम्पूर्ण विश्व ने सदियों से भारत पर आक्रमण किए हैं किंतु मुख्यतः मुग़ल और ब्रिटिश लोगो को ही अधिक सफलता मिली है। मुग़ल और ब्रिटिश लोग भी इस राष्ट्र पर कभी पुर्णतः राज नही कर सके।भारत जब गुलाम नही था जब यहाँ मुग़ल और ब्रिटिश आए क्युकी उस समय देश में किसी न किसी जगह क्रांति चलती ही रहती थी और यहाँ के लोगो ने प्राण गवाएं पर कभी मन से दासता स्वीकार नही की किंतु आज देश के एक बड़े वर्ग ने पराधीनता और गुलामी स्वीकार ली है और अब उनका उद्देश्य पूरे राष्ट्र को पराधीन बनाने का है और इस कार्य को बड़ी कुशलता के साथ क्रियान्वित कर रहे हैं। उन्होंने चारो तरफ़ ऐसा जाल बिछाया है की इसको हर कोई आराम से समझ भी नही पाता एक ऐसा माहौल बना दिया है की किसी भी भारतवासी में आत्मसम्मान या आत्मविश्वास जाग्रत न हो जाए और अपने को हीन भावना से ही ग्रस्त समझे। वर्तमान में पूरे विश्व में ये अकेला देश ऐसा है जिसको अपनी भाषा में लिखते-बोलते-पढ़ते शर्म आती है जो अमेरिका और ब्रिटेन की नौकरी करना पसंद करता है या सिर्फ़ एक उपनिवेश बन कर रहना चाहता है। यहाँ के उधोगपति, नौकरीपेशा या थोड़ा सा भी संपन्न व्यक्ति इंग्लिश बोलता है या बोलने का प्रयास करता दिखाई देता है और बड़ा ही गर्व महसूस करता है। मैं किसी भाषा के विरुद्ध नही हूँ और मैं भी फिलहाल इंग्लिश भाषी देश में कार्यरत हूँ किंतु इंग्लिश बोलने पर गर्व नही करता क्युकी मैं इसको एक साधारण भाषा से अधिक कुछ नहीं समझता जैसा की चाइना , जापान, रसिया, फ्रांस, स्पेन आदि के लोग समझते हैं। मेरा यह मानना है और यह प्रत्यक्ष भी है की भाषा, ज्ञान का पर्यावाची नही होती और कोई राष्ट्र अपनी भाषा में ही तरक्की कर सकता है अन्यथा उसकी तरक्की कुछ सीमित लोगो तक ही सीमित रहती है। जापान, यु. एस., चाइना इस बात के ज्वलंत उदाहरण है कि अपने स्वाभिमान और आत्मविश्वास से ही तरक्की होती है न कि किसी की नक़ल से।भारतियों में ये प्रचार बहुत है कि कंप्यूटर पर हिन्दी में कार्य करना सम्भव नहीं है इसके लिए हँसी के टेक्निकल शब्द बनाकर बहुत मजे लिए जाते हैं। ये तो गुलामी कि मानसिकता की पराकाष्ठा है। चाइना कि मैंडरिन भाषा में ३०० से अधिक अक्षर हैं और वो अपना समस्त कार्य इसी में करते हैं और ऐसा ही जापान, रसिया, फ्रांस आदि के लोग करते हैं। जापान आदि कई देशो में प्रोग्रामिंग भी जापानीज़ आदि में होती है। नयी खोज के साथ भाषा में नए शब्दों का भी निर्माण होता है। किंतु हिन्दी में ऊटपटांग शब्द बना कर कुछ भारतीय हँसते हैं और गुलामी कि चरम सीमा पर पहुच जातें हैं।

कुछ लोग आई. टी. और सोफ्टवेअर में भारत की कामयाबी को ही पूर्ण राष्ट्र कि तरक्की मानते हैं। क्या यह देश केवल सोफ्टवेअर और आई टी इंजिनीयर्स का ही है बाकी जनता को देश निकाले कि सजा देनी चाहिए। क्या केवल एक क्षेत्र में तरक्की करके इतने विशाल देश का भरण-पोषण हो सकता है। एक अनुमान के अनुससार २०२० तक भारत में १५ करोड़ से भी अधिक बेरोजगार हो जायेंगे और अब भी कितने ही करोडो लोग भूखे-नंगो का नर्कीय जीवन जीने पर मजबूर हैं।ये कैसी तरक्की कि है भारत ने १९९७ से करीब १ लाख ८२ हजार ९३६ किसान आत्महत्या कर चुके हैं, जबकि सरकार अमेरिका कि नक़ल से बेलआउट में मस्त है।२००७ के दौरान १६६३२ किसानों ने आत्महत्या कर ली। इनमें सर्वाधिक किसान महाराष्ट्र से हैं। गांव-देहात में मौत का धारावाहिक तांडव जस का तस जारी है। दिन-प्रतिदिन बेरोजगारी बढती जा रही है और भारत के इंजिनियर अमेरिका और ब्रिटेन के लिए काम करके बहुत प्रसन्न हो रहे हैं कि देश तरक्की कर रहा है। यदि वर्तमान में देश कि समस्याओं पर एक पुस्तक लिखी जाए तो कम से कम १०००० पृष्ठ तो आराम से लिखे जा सकते हैं। जो भारत का शहरी धनाड्य और संपन्न वर्ग है उसको केवल अपनी तरक्की ही सारे देश कि तरक्की नज़र आती है किंतु कटु सत्य यह है मुश्किल से २-३ करोड़ लोग ही संपन्न हैं और अधिक से अधिक ५ करोड़ हैं और ये ही लोग ओर अधिक संपन्न होते जा रहे हैं और ये ही लोग देश पर राज भी कर रहे हैं और बाकी जनता को लच्छेदार बातो में उलझा के उनका शोषण कर रहे हैं।ऊपर से सेकुलर्स खुलेआम प्रत्यक्ष आतंकवादियों को समर्थन देते हैं और शान्ति का राग अलाप करके जनता के विद्रोह या क्रांति को शांत करने में लगे रहते हैं । मजे कि बात देखो जनता का बेवकूफ उसी के सामने बनाया जा रहा है और जनता जातियों और गुटों में विभाजित होकर अपना बलात्कार करा रही है और जरा सी लज्जा भी नही है। अब राष्ट्रभक्ति का भी वो सम्मान नहीं है ओर लोग स्वतंत्रता को Happy Republic Day या Happy Independence Day कह कर अपना कर्तव्य पूर्ण करते हैं। यदि लोग ये समझते हैं की १९४७ में देश स्वतंत्र हुआ था तो वो एक बहुत बड़े भुलावे में हैं गौर से इतिहास को पलट कर देखो ओर जिनके हाथो में वो सत्ता आई थी उनका व्यक्तित्व देखो तो पाओगे वह एक सत्ता का स्थानांतरण था जो की कुछ अंग्रेजो से हट कर दूसरे अंग्रेजो के हाथ में आ गई थी। उन्होंने उस समय न तो अंग्रेजो के कानून को बदला न ही अपनी शिक्षा पद्धति लागू की, न ही ग़लत इतिहास को बदलने का प्रयास किया और न ही देश को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया वरन् देश को अंग्रेजो की नीति पर ही मुस्लिम तुष्टिकरण, भाषा, जाति आदि के नाम पर इसको खंड-बंड कर दिया। ये कैसी स्वतंत्रता है भाई मेरी समझ से परे है। इन्होने देश को मानसिक गुलाम बना दिया ओर उसीका परिणाम है आज जनता ने स्वयम ही देश की सत्ता एक विदेशी महिला के चरणों में अर्पित करदी अब केवल उसका मन्दिर बनाना ही बाकी है।

हमें राष्ट्र और राष्ट्रवाद को जानना चाहिए यजुर्वेद के अनुसार

आ ब्रह्मन ब्राहमणों ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्यः शूरअइषव्योअतिव्यधि महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोधानडवानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रतेष्ठा सभेयो युवास्या यजमानस्य वीरो जायतां, निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नअओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्।।

इस सूक्त के अनुसार जन समूह, जो एक सुनिश्चित भूमिखंड में रहता है, संसार में व्याप्त और इसको चलने वाले परमात्मा अथवा प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकारता है, जो बुद्धि या ज्ञान को प्राथमिकता देता है और विद्वजनों का आदर करता है, और जिसके पास अपने देश को बाहरी आक्रमण और आन्तरिक, प्राकृतिक आपत्तियों से बचाने और सभी के योगक्षेम की क्षमता हो, वह एक राष्ट्र है।

अंग्रेजी भाषा के ऑक्सफोर्ड शब्दकोष में नेशन शब्द का अर्थ बताया गया है - 'वह विशिष्ट जाति अथवा जन समूह जिसका उदगम, भाषा, इतिहास अथवा राजनीतिक संस्थाएं समान हों ।'

वैसे पश्चिम में नेशन को और अलग-अलग तरीको से भी परिभाषित किया गया है। आज का संसार नेशन-स्टेट्स में विभाजित है। आप देख सकते हैं भारत की राष्ट्र की परिभाषा और पश्चिम में कितना अन्तर है। यह भी एक पूर्ण विषय है जिस पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है। मेरा यहाँ पर तात्पर्य ये है की भारत एक राष्ट्र है और उसकी आत्मा वहां की संस्कृति और लोगो की वो भावना है जो उनको एक राष्ट्र के लिए समर्पित करती है । किंतु आज न केवल इसके राष्ट्र होने में संदेह किया जाता है वरन इसकी आत्मा हिंदू समाज को आतंकवादी, अत्याचारी जैसे शब्दों से परिभाषित किया जाता है। पूरे विश्व में सनातन धर्म या हिन्दुओ की छवि को कलंकित करने का व्यापक तौर पर कार्य और षडयंत्र किया जा रहा है। खुलेआम प्रत्यक्ष राष्ट्रवादी शक्तियों का दमन हो रहा है और आज का हिंदू समाज मौन धारण किए किसी ईश्वरीय अवतार की प्रतीक्षा में बैठा दिखाई देता है जबकि मनुष्य अपने कर्मो का स्वयं कर्ता और भोक्ता होता है। और सत्य की तभी जीत होती है जब उसके जीतने की चेष्टा होती है यदि कोई प्रयास ही नही करेगा तो ये देश इन सेकुलर्स जिनका उद्देश्य ही हिंदू,हिन्दुज्म को जड़ से मिटाना है के हाथो गुलाम या मुस्लिम मजहबी देश में परिवर्तित हो जाएगा । ये सेकुलर्स यहाँ यू. एस. में और विदेशो में बैठे भारतीयों को अपने राष्ट्र से काटने के लिए विशेष फिल्में या मूवी बनाते हैं, पुस्तकें लिखते हैं, समाचार पत्र पर लेख लिखते हैं आदि कार्य ये बड़ी ही दृढ़ इच्छा के साथ युद्ध स्तर पर कर रहे हैं।ये सेकुलर लोग जिमी मानसिकता से ग्रस्त जिमी-टैक्स अदा कर रहे हैं जो मुग़ल काल में हिन्दुओं से लिया जाता था।

आप में से काफ़ी लोगो ने स्वतंत्रता की लड़ाई और क्रांतिकारियों के बारे में जब-जब पढ़ा होगा तो आप लोगो में भी एक राष्ट्रवाद की भावना जाग्रत होती होगी और ये भी सोचते होगे कि यदि मैं उस समय होता तो क्रांतिकारी होता तो आज ये राष्ट्र अपने भक्तो को फ़िर से आमंत्रण दे रहा है उन्हें क्रांतिकारी बनने का ओर देश पर बलिदान होने का फ़िर से मौका दे रहा है और आज फ़िर से एक स्वतंत्रता संग्राम की आवश्यकता है अन्यथा इस विश्व से विश्वगुरू सनातन सभ्यता का नामो-निशान मिट जाएगा। गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है-